आज से 43 वर्ष पूर्व हमारे देश में कांग्रेस के द्वारा आपातकाल थोप दिया गया था जो आज भी केवल भारतीय ही नहीं वरन् भारत के प्रति नरम रुख रखने वाले विदेशियों के मन में भी एक के दुःस्वप्न की तरह दर्ज है। 25 जून 1975 की अर्धरात्रि में आपातकाल लगा जो 21 मार्च 1977 तक जारी रहा।आज जितने भी नेता भाजपा के खिलाफ महागठबंधन बनाने का प्रयास कर रहे हैं उनमें से अधिकांश का राजनीतिक वजूद काँग्रेस के इसी कदम के विरोध मे बना था ।सत्ता के लिए इनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता और विचारधारा के साथ समझौते की प्रवृत्ति एक आम नागरिक को हतप्रभ करता है।विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र भारत के संविधान में आपातकाल की चर्चा 18वें अध्याय के अनुच्छेद 352 से 360 के बीच किया गया है। भारतीय संविधान में यह प्रावधान जर्मनी के संविधान से लिया गया है।
आपातकाल लगाने के पीछे इलाहाबाद कोर्ट के उस फैसले को कारण माना जाता है जिसमें उसने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को रायबरेली चुनाव अभियान में सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का दोषी पाया था और उनके चुनाव को ही खारिज नहीं कर दिया था बल्कि उन पर अगले 6 साल तक चुनाव लड़ने पर और किसी भी तरह के संवैधानिक पद संभालने पर भी रोक लगा दिया था। वस्तुतः यह फैसला जस्टिस जगमोहन सिन्हा ने राजनारायण द्वारा 1971 में रायबरेली में इंदिरा गांधी के हाथों हारने के बाद दाखिल एक केस के संदर्भ में 12 जून 1975 को सुनाया था। इंदिरा गांधी के अनुकूल फैसला सुनाने के लिए जस्टिस सिन्हा को अनेक प्रलोभन दिए गए। प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी के वरिष्ठ निजी सचिव नैवलूने कृष्ण अय्यर मानते थे कि हर इंसान की एक कीमत होती है। कुलदीप नैयर लिखते हैं कि श्रीमती गांधी के गृह राज्य उत्तर प्रदेश से एक सांसद इलाहाबाद गए थे । उन्होंने जस्टिस सिन्हा से अनायास ही पूछ लिया था कि क्या वह पाँच लाख रुपए में मान जाएंगे। जस्टिस सिन्हा ने कोई जवाब नहीं दिया। उन्हे सुप्रीम कोर्ट में जज बनने का भी प्रलोभन दिया गया था।पर वह नहीं हिले ।
मामला सुप्रीम कोर्ट गया । हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा लेकिन इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे रहने की इजाजत दे दी। यह फैसला 24 जून 1975 को आया जिसे आज भी विवादास्पद माना जाता है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के एक दिन बाद श्रीमती इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग को लेकर जयप्रकाश नारायण द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर आंदोलन का आवाहन किया गया । वैसे इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद से ही इंदिरा गांधी के खिलाफ जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, जॉर्ज फर्नांडिस, सुब्रमण्यम स्वामी आदि प्रमुख नेताओं के नेतृत्व में देशव्यापी आंदोलन आरंभ हो चुका था। श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री पद छोड़ने के मूड में नहीं थी नतीजन 25 जून को अर्धरात्रि में आपातकाल की घोषणा कर दी गई। इसका पता देशवासियों को अगले दिन चला जब सुबह में ऑल इंडिया रेडियो पर श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपना संदेश प्रसारित करवाया- “भाइयों और बहनों , राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। लेकिन इससे सामान्य लोगों को डरने की जरूरत नहीं है।” इसके साथ ही आपातकाल का दौर शुरू हो गया।
आपातकाल लगभग 2 वर्षों तक रहा। इन दो वर्षों में देश की स्थिति काफी भयावह हो गई। भारतीय कानून और संविधान में संशोधन कर सुप्रीम कोर्ट के अधिकार को सीमित कर दिए गए । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राष्ट्रवादी गतिविधियों से भयभीत होकर 4 जुलाई 1975 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। 25 जून से पूर्व ही श्रीमती गांधी की मंशा का अंदाजा लगाते हुए आपातकाल के खिलाफ जनजागृति प्रसारित करने में लग गई थी। 15 मार्च को नई दिल्ली में दीनदयाल शोध संस्थान ने संविधान में आपातकाल और लोकतंत्र के विषय पर एक परिचर्चा की मेजबानी की जिसमें सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री कोका सुब्बाराव ने कहा कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है जब राष्ट्रपति और मंत्रिमंडल लोकतंत्र को नष्ट करने के लिए मिल जाए।
आपातकाल के दौरान सत्याग्रह करने वाले कुल लगभग डेढ़ लाख में से लगभग एक लाख और मिशा में गिरफ्तार लगभग तीस हजार लोगों में से लगभग पाचीस हजार संघ परिवार के कार्यकर्ता ही थे। आंदोलन के दौरान लगभग 110 स्वयंसेवक अपनी जान से हाथ धो बैठे। लोक संघर्ष समिति के जरिए आपातकाल के विरोध में निरंतर आंदोलन चलाया गया । कहा जाता है इसके गठन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की महती भूमिका थी। अपनी गिरफ्तारी के पूर्व श्री जयप्रकाश नारायण ने नाना जी देशमुख को लोक संघर्ष समिति की बागडोर सौंप दी और जब नानाजी देशमुख को गिरफ्तार किया गया तो नेतृत्व सर्वसम्मति से श्री सुंदर सिंह भंडारी को नेतृत्व सौंपा गया। जिस तरह से राष्ट्रहित एवं लोकतंत्र को बचाने के संघर्ष में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पूरे जोश एवं ईमानदारी के साथ लगी उसको देख कर साम्यवादी नेताओं को भी अब उनकी प्रशंसा करने के लिए बाध्य होना पड़ा। 9 जून 1979 के इंडियन एक्सप्रेस के अंक में मार्क्सवादी सांसद श्री ए के गोपालन ने लिखा “इस तरह के वीरतापूर्ण कृत्य और बलिदान के लिए उन्हें अदम्य साहस देने वाला कोई आदर्श ही होना चाहिए”।
यद्यपि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने आपातकाल का विरोध किया और आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने आपातकाल का समर्थन किया। उन्होंने इसे एक अवसर के रूप में देखा और उसका स्वागत किया। उनका मानना था कि वह आपातकाल को कम्युनिस्ट क्रांति में बदल सकते हैं, वैसे भी वामपंथी ऐसे सभी गतिविधियों का समर्थन करते हैं जिसके चलते अराजकता फैलती है और स्थापित व्यवस्था को उखाड़ा जा सकता हो । भाकपा ने अपने राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान आपातकाल के समर्थन में प्रस्ताव भी पारित किया। इसका असर हुआ कि उसके सभी कार्यकर्ता कांग्रेस के आपातकाल के समर्थन में पूरे देश में सक्रिय हो गए और सरकार का समर्थन करने लगे। यह इंदिरा गांधी के लिए बहुत बड़ा नैतिक समर्थन था और इसकी कीमत बाद के दिनों में उन्होंने उन्हें अदा किया। एक योजना के तहत सारे बौद्धिक संस्थान धीरे-धीरे वामपंथियों को सुपुर्द कर दिया गया। इसका परिणाम हमें आज देखने को मिलता है।
जयप्रकाश नारायण, मोरारजी, चौधरी चरण सिंह, राज नारायण, मधु लिमए, चंद्रशेखर, जॉर्ज फर्नांडिस, कर्पूरी ठाकुर, नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह के साथ जनसंघ के अटल बिहारी बाजपेई, लालकृष्ण आडवाणी, ध्रुवचंद बंसल, प्रभु दयाल मित्तल सहित अनेक प्रमुख नेताओं को जेल में बंद किया गया। अटल जी की जेल में तबीयत खराब हो गई तो उन्हें एम्स में शिफ्ट करना पड़ा। हालाकी गिरफ्तारी के दौरान अटल जी कई बार बीमार पड़े। वे 18 माह जेल में रहे और इस दौरान जेल में लिखी अपनी कविताओं से लोगों के दिलों में अपनी खास जगह बनाई। बाजपेई देश में हो रहे भूमिगत आंदोलनों से अवगत होते रहते थे। आपातकाल के अत्याचार से पीड़ित होकर उन्होंने एक कविता लिखी थी जो काफी लोकप्रिय हुई थी जो इस प्रकार है –
- अनुशासन के नाम पर अनुशासन का खून
- भंग कर दिया संघ को कैसा चढ़ा जुनून
- कैसा चढ़ा जुनून मातृ पूजा प्रतिबंधित
- कुटिल कर रहे केशव-कुल की कृती कलंकित
- कहे कैदी कविराय तोड़ कानूनी कारा
- गूँजेगा भारत माता की जय का नारा
आज कांग्रेस के साथ राजनीतिक पारी खेलने को आतुर एवं उनके साथ महागठबंधन में शामिल बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार उन दिनों छात्र नेता थे और जेपी आंदोलन का हिस्सा थे। उस दौरान बड़े नेताओं के साथ नीतीश जी भी इनामी अपराधियों की सूची में शामिल थे। 9 जून 1976 को उन्हें गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तार करने वाले पुलिस को 2750 रुपए की राशि का पुरस्कार दिया गया । कहा जाता है कि नीतीश कुमार के कनपटी पर बंदूक रखकर उन्हें हथकड़ी पहनाई गई। कायदे से कहा जाए तो महागठबंधन में शामिल लगभग सभी दल (कांग्रेस को छोड़कर) कांग्रेस विरोध की मिट्टी से उत्पन्न हुए हैं। यह राजनीतिक विद्रूपता ही कही जाएगी कि आज सभी एकजुट होकर उन लोगों के खिलाफ एक मंच पर आना चाह रहे हैं जिन्होंने आपातकाल के दौरान जब लोकतंत्र की हत्या हो रही थी उनके कंधे से कंधा मिलाकर आपातकाल के विरोध में अपने खून बहाए थे।
विदित हो कि आपातकाल के दौरान सभी नागरिक अधिकार निरस्त कर दिए गए थे। सत्ता के खिलाफ बोलना अपराध हो गया था। जो लोग भी सत्ता के खिलाफ बोलते थे उन्हें जेलों में ठूंस दिया जाता था। कुल मिलाकर आपातकाल के दौरान ऐसा अत्याचार किया गया जिसमें देशवासियों को एक बार फिर से अंग्रेजों के शासन की याद दिला दी। देश ने उन दिनों जबरन नसबंदी का दौर भी देखा। डाइनिंग टेबल पर हेड की कुर्सी को लेकर संजय गांधी ने नेवी चीफ की बेइज्जती कर दी। प्रेस को सेंसर कर दिया गया । अखबार वही खबर छाप सकते थे जो सरकार चाहती थी । वैसे सभी खबर प्रतिबंधित कर दिए गए नींद से सरकार की छवि को नुकसान पहुंचता था।
भारतीय लोकतंत्र के गौरवशाली इतिहास में वंश वादी कांग्रेस के द्वारा थोपा गया आपातकाल एक काले धब्बे की तरह है जिसे याद कर देशवासी आज भी सिहर जाते हैं । आज हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। सभी देशवासियों का मन अपनी उपलब्धियों और विरासत को लेकर गौरव से भरा हुआ है लेकिन आपातकाल का दंश का दर्द आज भी हमारे दिलों से नहीं गया है। हिटलर के अत्याचारों के लिए जर्मनी ने माफी मांग ली पर आज तक कांग्रेस के किसी नेता ने आपातकाल के लिए देश से क्षमा नहीं मांगी है जो साबित करता है कि आज भी उनके मन में आपातकाल को लेकर किसी भी तरह का अपराधबोध नहीं है।निश्चित रूप से आपातकाल का दौर भारतीय लोकतंत्र के एक शर्मनाक अध्याय है ।
Author Profile
- लेखक बिहार भाजपा प्रदेश कार्यकारिणी के सदस्य एवं बिहार भाजपा राजनीति प्रतिपुष्टी और प्रतिक्रिया विभाग के प्रदेश संयोजक हैं ।
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